- भारत में मुस्लिम पर्सनल लॉ की प्रयोज्यता और मुस्लिम समुदाय के भीतर लिंग संबंधों पर असर डालने का मुद्दा एक बार फिर से काशीपुर के शायरा बानो के साथ उठाया गया, जिसने “ट्रिपल तलाक” की वैधता को चुनौती दी।
- पिछली बार इस्लामी कानूनी मानदंडों में महिलाओं की सुरक्षा के इस मुद्दे पर सार्वजनिक प्रसिद्धि प्राप्त हुयी था, जब 1985 में शाह बानो केस ने इसकी चिंताओं को उठाया था।
- “मुस्लिम पर्सनल लॉ” शरिया पर आधारित है।
- मोटे तौर पर, शरीयत को कुरान के प्रावधानों और पैगंबर मोहम्मद की शिक्षाओं तथा प्रथाओं के रूप में समझा जा सकता है।
- हालांकि, शरीयत की उत्पत्ति, विकास और प्रयोज्यता इसके मुकाबले बहुत अधिक पेंचीदा हो गया है।
- भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14 अपने सभी नागरिकों को “कानून का समान संरक्षण” प्रदान करता हैं लेकिन जब निजी मुद्दों (शादी, तलाक, विरासत, बच्चों की हिरासत आदि) की बात आती है, तो भारत में मुसलमानों को मुस्लिम पर्सनल लॉ द्वारा नियंत्रित किया जाता है जो 1937 में लागू हुआ था।
Read in English: Shariat and Muslim Personal Law: All you need to know
शरियत कैसे उत्पन्न हुआ?
- अरब में एक धर्म के रूप में इस्लाम को पेश करने से पहले वहाँ एक आदिवासी सामाजिक संरचना मौजूद थी।जनजाति द्वारा पूरी तरह से कानून को निर्धारित किया था तथा उनके नियम अलिखित थे तथा समय के साथ जब समाज ने परिवर्तन की आवश्यकता महसूस की तब ये कानून संशोधित किये गए।
- सातवीं शताब्दी तक, मुस्लिम समुदाय मदीना में स्थापित हो गया तथा जल्द ही आसपास के क्षेत्रों में फैलना शुरू कर हो गया था ।
- इस्लाम की स्थापना के साथ ही ईश्वर की इच्छा के अनुसार जैसा कि कुरान में मुहम्मद के रहस्योद्घाटन के रूप में फैलता है हर जनजातीय परंपरा को अधिग्रहित करने के लिए आया।
- कुरान में लिखित रीति-रिवाजों के साथ अलिखित नियमो के इस लेख को शरिया के नाम से भी जाना जाता है, जो इस्लामी समाज को नियंत्रित करता है।
- इसके अतिरिक्त, शरियत भी हदीस पर आधारित है (कार्यों और पैगंबर के शब्द- उनके साथियो द्वारा दर्ज की गई) मूल रूप से, वे समाज में व्यावहारिक समस्याओं के लिए बहुत व्यापक और सामान्य समाधान थे।
समय के साथ शरीयत कैसे विकसित हुआ?
- यह बहस करने के लिए एक बड़ी गलती होगी कि सातवीं शताब्दी में स्थापित पैगम्बर के अचल शब्द के रूप में शरियत सदियों से स्थाई रहा है।
- पैगंबर के जीवित रहने के दौरान कुरान में वर्णित कानून पैगंबर और उनके समुदाय द्वारा देखी गई व्यावहारिक समस्याओं के जवाब में विकासशील होता रहा है।
- उनकी मृत्यु के बाद भी शरिया के विभिन्न विभागों की उपस्थिति तथा विभिन्न आधुनिक इस्लामी देशों ने इसे अपने कानूनी रूप से लागू किया जोकि इस्लामी कानून की क्षमता का प्रमाण है की समाज की जरूरतों को पूरा करने के लिए इसे विकसित किया जा सकता है ।
- इस्लामी कानून के चार अलग-अलग विभाग हैं, जिनमें से प्रत्येक ने क़ुरान की अलग अलग व्याख्या की है तथा इनमे दुनिया भर के इस्लामी समुदाय के लिए अलग-अलग नियम शामिल हैं।
- चार विभाग (हनाफिया, मलिकिया, शाफिया और हानाबलीया) चार अलग-अलग शताब्दियों में विकसित हुए।
- मुस्लिम आबादी वाले प्रत्येक देशो अपने विशिष्ट स्तिथि पर आधारित इन विभागों में से एक इस्लामी कानून को अपनाया।
- तदनुसार, आधुनिक इस्लामी राष्ट्रो ने अपनी सामाजिक और राजनीतिक जरूरतों को पूरा करने के तरीके में शरीयत को गले लगाकर आधुनिकता की जरूरतों पर प्रतिक्रिया दी है।
- मिसाल के तौर पर, मिस्र ने पश्चिम की ओर से बनाए गए सिद्धांतों के आधार पर धर्मनिरपेक्ष कानूनों को बढ़ाकर उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में आधुनिकता की मांगों पर प्रतिक्रिया दी थी।
- दूसरी ओर, सऊदी अरब में इस्लामी कानून जोकि हनाबाली, शफीय्या के विचारधारा के विभाग द्वारा स्थापित किया गया है, उसका कड़ाई से पालन किया जाता है।
भारत में मुस्लिम कानून कैसे लागू हुआ था?
- ‘मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) आवेदन अधिनियम’ 1937, भारतीय मुसलमानों के लिए एक इस्लामी कानून कोड तैयार करने के उद्देश्य से पारित किया गया था।
- ब्रिटिश जो उस समय भारत में शासन कर रहे थे, वो येह सुनिश्चित करने की कोशिश कर रहे थे कि भारतीयों पर उनके सांस्कृतिक मानदंडों के अनुसार शासन करना चाहिए। हिंदू और मुसलमानों के लिए किए गए कानूनों के बीच भेद करते समय तो उन्होंने हिन्दुओ के लिए यह बयान दिया था कि “उपयोगो के स्पष्ट प्रमाणो का कानून के लिखित पाठ का पलड़ा भारी होगा”।
- दूसरी तरफ मुसलमानों के लिए कुरान के लेख सबसे अधिक महत्वपूर्ण होंगे। 1937 के बाद से शरीयत आवेदन अधिनियम में विवाह, तलाक, विरासत और परिवार के संबंधों जैसे मुस्लिम सामाजिक जीवन के पहलुओं को अनिवार्य किया गया है तथा यह अधिनियम बताता है कि व्यक्तिगत विवाद के मामलों में राज्य हस्तक्षेप नहीं करेगा।
क्या भारत में मुसलमानों के लिए विशिष्ट निजी कानून हैं?
- इस तरह के कानून भारत में अन्य धार्मिक समूहों के लिए वर्षों पूर्व से किए गए हैं, जिससे देश में विभिन्न धर्मों के लिए अलग नागरिक कोड तैयार किया जा सकता हैं।
- उदाहरण के लिए, 1956 के हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, जिसमें हिन्दू, बौद्ध, जैन और सिखों के बीच संपत्ति विरासत के लिए दिशानिर्देश दिए गए हैं।
- 1936 के पारसी विवाह और तलाक अधिनियम ने अपने धार्मिक परंपराओं के अनुसार पारसीयो द्वारा पालन किए जाने वाले नियमों को अपनाया है।
- 1955 के हिंदू विवाह अधिनियम ने हिंदुओं के बीच शादी से संबंधित कानूनों को संहिताबद्ध किया था। 1955 में इस अधिनियम में तलाक और जुदाई पर कानून शामिल किए गए थे जो पहले इसका हिस्सा नहीं थे।
- शादी से संबंधित इन अलग-अलग सिविल कोडों के अलावा, एक विशेष विवाह अधिनियम भी है जिसमें 1954 में पिछली बार संशोधन किया गया था। यह उन विवाह संबंधी कानूनों का प्रावधान करता है जिसमे किसी भी धर्म से संबंधित व्यक्ति हों। मुसलमान भी इस कानून के तहत शादी कर सकते हैं।
भारत में शरीयत आवेदन अधिनियम क्या अपरिवर्तनीय है?
- शरियत अधिनियम की प्रयोज्यता अतीत में भी विवादो में आ चुकी है। पिछले उदाहरण तब सामने आए हैं जब मौलिक अधिकारों के तहत महिलाओं के अधिकारों के संरक्षण के मुद्दे पर धार्मिक अधिकारों के साथ संघर्ष शुरू हुआ।
- इनमें सबसे अच्छी तरह से शाह बानो का मामला जाना जाता है। 1985 में, 62 वर्षीय शाह बानो ने एक मुकदमा दायर किया, जो अपने पूर्व पति से निर्वाह निधि चाहती थी। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में उसके निर्वाह निधि के अधिकार का समर्थन किया था लेकिन इस निर्णय का इस्लामी समुदाय ने जोरदार विरोध किया तथा इनके विचारो में यह कुरान में लिखित नियमों के खिलाफ है।
- इस मामले ने एक विवाद को शुरू किया की किस हद तक अदालत निजी/ धार्मिक कानूनों के साथ हस्तक्षेप कर सकती है। कांग्रेस सरकार जो सत्ता में थी उसने मुस्लिम महिला (तलाक अधिनियम पर अधिकारों का संरक्षण) पारित कर दिया, जिसके कारण पति को उसकी पत्नी को भत्ते का भुगतान करना आवश्यक बना दिया लेकिन तलाक के 90 दिन बाद केवल इद्दत की अवधि के दौरान तक ही यह मान्य था।
- व्यक्तिगत कानूनों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन के बहुत सारे उदाहरण हैं। 1930 के बाद से भारत में महिला आंदोलन के मुख्य एजेंडा में से यह एक प्रमुख एजेंडा रह चुका है जिसमे सभी धर्मों के व्यक्तिगत कानूनों में महिलाओं को भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है।
- इससे पहले मार्च 2016 में, केरल उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जस्टिस बी केमल पाशा ने मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत मुस्लिम महिलाओं को समान अधिकारों से वंचित होने के खिलाफ मजबूत विरोध प्रदर्शन किया था। हालांकि, निजी कानूनों में सुधारों के विरोध की आवाजो ने संशोधन करना मुश्किल बना दिया है।
- भारत में शरीयत आवेदन अधिनियम व्यक्तिगत कानूनी रिश्तों में इस्लामी कानूनों के नियमो की रक्षा करता है लेकिन यह कानून कानूनों को परिभाषित नहीं करता है।
- यह स्पष्ट करता है कि व्यक्तिगत विवादों के मामले में, राज्य हस्तक्षेप नहीं करेगा तथा धार्मिक प्राधिकरण कुरान और हदीस की अपनी व्याख्याओं के आधार पर एक घोषणा पास करेगा।
- इस मामले की पृष्ठभूमि को देखते हुए इसे मुश्किल से गुज़रना पड़ता है क्योंकि इससे सवाल उठते है कि राज्य (जो कि धर्मनिरपेक्ष होना चाहिए) को किस हद तक नागरिकों के व्यक्तिगत मामलों में हस्तक्षेप करना चाहिए?
- जबकि ऐसे मामलों में महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा को समय-समय पर देखा गया है, “इस्लाम को मानने वालों में से अधिकांश शरियत के कानूनों को पूरी तरह से सही समझते हैं और इसलिए इस तथ्य पर विचार करते हुए इसे विधायी परिवर्तनों के अधीन नहीं किया जा सकता है क्योकि यह धर्म, प्रथा और इसी तरह के मौलिक अधिकारों का एक हिस्सा हैं, “-पेशेवर वकील एमआर शमशाद कहते हैं।